Wednesday 2 November 2011

रसोई गैस और डीजल भी महंगे होंगे




देश की जनता को एक बार फिर महंगाई से जूझना पड़ सकता है। डीजल व रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी किए जाने की संभावना है। डीजल और रसोई और गैस के दामों पर चर्चा के लिए पेट्रोलियम मंत्री एस जयपाल रेड्डी जीओएम की बैठक बुलाई है। कहा जा रहा है कि पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले सरकार डीजल, एलपीजी और केरोसिन की कीमतों में वृद्घि कर सकती है।

गौरतलब है कि क्रूड ऑयल महंगा होने से तेल कंपनियां घाटा उठा रही हैं। इसी कारण दामों में वृद्धि की संभावना जताई जा रही है। दूसरी ओर पेट्रोल के दाम बढ़ाने पर ऑयल सेक्रेटरी जीसी चतुर्वेदी ने बुधवार को कहा है कि पेट्रोल के दाम बढ़ाने का फैसला तेल कंपनियां ही ले सकती है।

तेल कंपनियों के दबाव के बाद सरकार पेट्रोल के दाम 1.82 रुपये लीटर बढ़ा सकती है। इससे पहले 15 सितंबर को ही पेट्रोल के दाम 3.14 रुपये लीटर बढ़े थे। फिलहाल दिल्ली में पेट्रोल के दाम 66.84 रुपये लीटर है और अगर दाम बढ़ जाते हैं तो दिल्ली में पेट्रोल 68.66 रुपये लीटर होगा। पिछले एक साल में सरकार दस बार पेट्रोल के दाम बढ़ाकर आम आदमी कमर तोड़ चुकी है।

डीजल और रसोई गैस के दामों में बढोतरी करने से क्या आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रर्दशन पर असर पड़ेगा?





चीनी सीमा पर तैनात होंगे एक लाख भारतीय सैनिक



नई दिल्ली। भारतीय सेना का अरुणाचल प्रदेश में पर्वतीय सैन्यदल (माउंटेन स्ट्राइक कॉर्प्स) की रक्षा प्रणाली को और सशक्त बनाने का प्रस्ताव जल्द ही मंत्रिमंडलीय रक्षा समिति के पास पहुंच जाएगा

सूत्रों के अनुसार मौजूदा सैन्य दल में और एक लाख सैनिक भर्ती करने पर 60,000 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च होंगे।
एक बार समिति द्वारा अनुमोदित हो जाने के बाद अप्रैल तक 12वीं पंचवर्षीय योजना के लागू होने के दौरान इसके बजट से सम्बंधित मुद्दे भी निपटा लिये जाएंगे।

लेकिन दूसरी ओर लद्दाख के लिए 10,000 सैनिकों की डिविजन का मामला अधर में रह जाएगा, और उसके बदले सेना को सिर्फ 5,000 सैनिकों के इनफैंट्री ब्रिगेड से ही संतोष करना पड़ेगा।
सीएनएन-आईबीएन को सूत्रों से पता चला है कि तोपची सैनिकों में भी बढ़ोतरी नहीं होने का अंदेशा है। हालांकि, लद्दाख में टैंक रेजिमेंट की संख्या में वृद्धि होना तय है और इस सिलसिले में प्रगति हो रही है। इसके अलावा, निर्माणाधीन न्योमा हवाईक्षेत्र से इस इलाके की सैन्य गतिशीलता और सैन्यतंत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण सुधार होगा। कुछ मामलों में तो न्योमा में वायुसेना अपने सबसे बेहतरीन लड़ाकू विमान भी तैनात करवाएगी।
सेना कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल रवि दस्ताने ने कहा, “सड़कों की वजह से मुझे गतिशीलता मिलती है, नए सैन्य अड्डे मिलते हैं, सेना के निवास के लिए नए ठिकाने मिलते हैं और नए प्रशिक्षण क्षेत्र भी मिलते हैं। मेरा खयाल है कि इससे महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता और हमें इसी पर ध्यान केंद्रीत करना चाहिए, हमें अपने सैनिकों को प्रशिक्षण देने की जरूरत है।”इस बीच रक्षा राज्य मंत्री पल्लम राजू ने चीन की ओर से किसी भी खतरे के संकेत का खंडन करते हुए कहा है कि मैं नहीं समझता कि हमें खासतौर से चीनी सीमा के पास सावधान रहने की जरूरत है। जहां तक हमारी सुरक्षा को लेकर खतरों की बात है, तो हम इसके लिए पर्याप्त कदम उठा रहे हैं।”

Saturday 29 October 2011

कब समाप्त होगी अमावस्या की काली रात ?



 - अरविंद शीले

हम भारतीय सचमुच बड़े ही धार्मिक हैं। बारह महीनों में हजारों पर्व मनाते हैं। करें भी क्या ? तैंतीस करोड़ तो हमारे देवी-देवता ही हैं। ऐसा पृथ्वी के और किसी हिस्से में नहीं होता। धर्म निरपेक्ष हमारे देश में असंख्य धर्म के कोटि-कोट देवताओं की पूजा, हम वर्ष भर कई-कई रूपों करते रहते हैं। देश में हो रहे संप्रदायवाद के तांडव और अलगाववाद की गर्जनाओं के बाद तो अपने-अपने धर्म के सभी संवेदनशील पहलू हमें छूने लगे हैं, सिवाय मानव धर्म के। धर्म जानने की, करने चीज थी। हमने अपने-अपने धर्म को कट्टर रूप में केवल मानना शुरू कर दिया। हमारा राजनैतिक धर्म भी धराशायी हो गया है। तभी तो हम कटोरा लेकर कभी हांगकांग कभी अमेरिका और कभी थाईलैंड पहुंच जाते हैं। देश-विदेश से पैसा बटोरकर भ्रष्टाचार करते हैं। अपना और स्विस बैंकों का पेट भरते हैं। कहीं भी हमें अपमान का, स्वाभिमान का बोध नहीं होता और जो इसका बोध कराए उस पर सभा में चप्पल फेंकते हैं।

सत्ता और धर्म का लोभ
अपने-अपने धर्म के देवी-देवताओं को छाती से चिपकाकर हम धार्मिक पहचान तो बनाते रहे परंतु धर्म के नाम पर अपने भाइयों का गला काटने से भी नहीं चूके। यदि हम वास्तव में धार्मिक हो गए हैं तो सत्ता और धर्म का लोभ हमसे क्यों नहीं छूट रहा है? धार्मिक व्यक्तियों को सत्ता, अर्थ, लोभ, मोह से क्या मतलब? परंतु हमने धर्म को नहीं, धर्म के मुखौटे को अंगीकार कर लिया है। तभी तो कुर्सी दिखी नहीं कि सब धर्म गायब। रुपया दिखा नहीं कि सब धर्म गायब। दिखना कुछ चाहते हैं, करना कुछ। धर्म हमें नरम, लचीला, विनयशील, करुणामय बनाता है। लेकिन हो रहा है बिलकुल उल्टा कि हम कट्टरपंथी बनते जा रहे हैं। मजाल कि कोई हमारे धर्म का एक कंकर भी इधर से उठाकर उधर रखा दे। मजाल कि कोई हमारे धार्मिक दायरे की सीमा रेखा में अपने पांव तो रख दे और यदि किसी इस या उस ने कुछ ऐसा-वैसा कर दिया तो कत्ले आम मच जाएगा पूरे देश में। हमने कभी नहीं सोचा कि देश तरक्की की मंजिल पर पहुंचे। देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो। कोई भूखा न सोए और जब जागे तो काम मिले। शिक्षा-चिकित्सा की समुचित व्यवस्था हो, ऐसा कुछ नहीं सोचते। सोचते हैं तो केवल यह कि हमारे धार्मिक झंडों का रंग और गहरा कैसे हो? हमारे धार्मिक नारों में तीव्रता कैसे आए? हमारे धार्मिक संवाद धारदार कैसे बनें? और इसी तरह की विसंगतियों के साथ आ जाते हैं त्यौहार। दारिद्रय से भरपूर, शंकित मन से परंपराओं का निर्वाह करने के लिए मजबूर हो जाते हैं हम। सुरसा सी बढ़ती महंगाई ने तो वैसे ही त्यौहारों का रंग फीका कर दिया है परंतु देश के दहशत भरे माहौल ने तो त्यौहारों को बिलकुल औपचारिक ही बना डाला है। संप्रदायवाद,अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार के प्रचण्ड दावानल के समक्ष नन्हा दीप जलाकर दीपावली मनाना औपचारिकता नहीं है तो क्या?

पूजा में भक्ति का अभाव
वैसे भी आज की पूजाओं में धर्म नहीं होता, भक्ति नहीं होती, होता है हुल्लड़ और मजाक और मजा। एक जमाने में गले में गमछा लपेट कर विनम्रता से  चंदा लिया जाता था, अब थोड़ी उन्नति हुई है, छुरी-छुरे और गाली-गलौच का खेल खेला जाता है। रास्ते में गाड़ी रोककर चंदा वसूला जाता है। थाने और पुलिस वाले कहते हैं, डरने की जरूरत नहीं हम किसलिए हैं? जबरदस्ती चंदा वसूलने की कोशिश करने पर हमें इत्तिला दीजिए, हम आपकी रक्षा करेंगे। परन्तु कौन किसलिए है और कहां है, कोई नहीं जानता। दीवाली का सबसे बड़ा मजा है शोर-शराबे और धूम-धड़ाके का। पटाखों और बमों की आवाज से मुहल्ले के कुत्ते कांपते हैं, पेड़ पर बैठै पक्षी भाग जाते हैं। रोगियों के कान फटने लगते हैं। राहगीर घायल होकर अस्पताल भागते हैं। उत्पात बढ़ता ही जा रहा है। आदमी के संयम का वाल्व ही बेकार हो गया है। विदेशी हमें देखकर हंसते हैं और हम अपने आप को देखकर हंसते हैं। सिर्फ एक प्रश्न अपने से बार-बार पूछते हैं कि शास्त्रों में कहा गया है कि आहार निद्रा भय मैथुनच:। सामान्य येतत पशुर्भिर्नराशाम्। धर्मोहि तेषर्मेधि को विशेषे। ना: पशुभि: समाना। आहार, निद्रा, भय और मैथुन पशुओं में भी है और मनुष्य में भी। तब मनुष्य और पशु में क्या अंतर रह जाता है? अंतर रहता है सिर्फ धर्म का, विवेकशील धर्म का, ज्ञानशील धर्म का।

आशा और विकास की किरणें
दीपावली आती है अमावस्या की काली, अंधकार की चादर ओढ़े। दहशत और मायूसी के आजम में बाहर द्वार पर दीप जला नहीं सकते। भीतर अन्तस् का दीप जलाना तो और कठिन है। उसके लिए साधक चाहिए, साधना चाहिए, उपासना चाहिए। देश के विध्वंसक माहौल में सब साधनाएं समाप्त हो गई हैं। सिर्फ बची रह गई है तो शव-साधना। रोज-रोज के बम विस्फोटों और बारूदी सुरंगों के फटने से प्राप्त लाशों की जलती चिताओं की लपटों में हम आशा और विकास की किरणें ढूंढ रहे हैं। धधकती चिताओं के धुंए में हम भाग्य और भविष्य देख रहे हैं और इस सबके बावजूद आकाश छूती चिता की लपटों के समक्ष एक नन्हा दीपक जलाकर त्यौहार मनाने को भी बाध्य हैं हम।

चारों ओर चीत्कार
आज साधकों के गोत्र बदल गए। समाज अब सहजिया संप्रदाय के हाथ में है। निर्माण की शक्ति है, ध्वंस की शक्ति भी शक्ति है, बिगाडऩे की शक्ति भी शक्ति है। चारों तरफ यह उल्लासित चीत्कार सुनाई देता है, जला दो, नष्ट कर दो, उड़ा दो। रहनुमाओं की नजरें बदल गईं। समाज नीली-पीली टोपी वालों की मुद्रा में कैद हो गया है। जिनके पास शक्ति है, पैसा है, रसूख है, धार्मिक अंध-विश्वासों के जरिए समाज को बरगलाने की ताकत है, उनकी दीवाली है, बाकी सबका दीवाला। यह हमारे देश में ही संभव है कि कुछ मु_ी भर लोग अरबों रुपए, रोटी, कपड़े, मकान और रोजगार के लिए तरसते करोड़ों लोगों की उदास आंखों के सामने बम, फटाखे, फुलझड़ी में उड़ा देते हैं।

चारों ओर अंधकार
चारों ओर अंधकार फैला हुआ है। गांव-गांव अंधकार फैला हुआ है। फसल भरे खेतों में राजनैतिक दलों के कौआ हांकने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। बाढ़ आती रहती है और जब वह नहीं आती तो आता है सूखा। थोड़े से पैसे के लोभ में दलालों के निर्देश के मुताबिक गांव का आदमी शहर में राजनैतिक जुलूस में भाड़े का टट्टू बन जाता है। पटरियों पर बैठ कर ट्रेनें रोक दी जाती हैं। हड़तालें और देश बंद करके हम खुश होते हैं। पंचायतें राजनीतिबाजों का अड्डा बन गई हैं। हत्यारे, लुटेरे घूम रहे हैं सड़कों पर। बहु-बेटियों का सड़कों पर घूमना बंद हो गया है। लुटेरे चैन झपट रहे हैं। पत्नी के साथ सोए पति को काट-काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है।

कहां गया आनंद और उल्लास
दीपावली एक समय गांव का उत्सव होता था, फसल का उत्सव था यह, प्राचुर्य का उत्सव था। गांव को दीपकों से सजाया जाता था और दीवाली के पहले दिन दारिद्रय को भगाया जाता था ताकि अगले दिन प्रचुरता की देवी लक्ष्मी का स्वागत किया जा सके। लेकिन अब गांव में आनंद-उल्लास कहा है? वे सब तो भाग कर शहर चले गए हैं और शहर का धर्म ही है कि वह हर चीज की आत्मा को मार डालता है, उसे कुरूप बना देता है। आजाद देश की सरकार गरीब आदमी को इतना भी मिट्टी का तेल नहीं दे पाई कि वह चिमनी ही जला सके। प्रकाश और प्राचुर्य का उत्सव तो अब शहरों में चला गया है। गरीब के काई लगे खपरैल के घर में तो चिमनी ही टिमटिमाती रहती है। दीपावली अब दीपकों से नहीं सजती। इस यंत्र-तंत्र युग में भी एक सेंटीमीटर वाली मोमबत्ती ही प्रकाश स्तंभ बनी हुई है। पैसे वालों के मकानों की दीवारें बिजली की झालरों से झिलमिलाती हैं, तरह-तरह की आकृति वाले दीपदानों में प्रकाश की बाढ़ उमड़ती रहती हैं। उनके घरों में दीपवली तो क्या, पूरे साल अंधकार का प्रवेश वर्जित रहता है। ये धनी लोग दीपावली की रात आकाश को आतिशबाजियों से आलोकित करने की क्षमता रखते हैं, जबकि गरीब के अंधेरे में डूबे हुए घरों में चूल्हा तक नहीं जलता।

भूखा पेट, काम की जुगाड़
दिनभर की मेहनत के बाद घर लौटा आदमी सख्त जमीन पर भूखे पेट उकड़ूं पड़ा अंधकार में पूरी रात काट देता है। उसके आश्रय स्थल को रोशनी से जग-मग कर दे इसका कोई साधन उसके पास नहीं है। भूखा पेट लिए सुबह काम की जुगाड़ की कोशिश करता यह आदमी रोज ही अमावस्या की रातें भुगतता है। उसके जीवन में कब आएगी पूर्णिमा या कहें जग-मग दीपों वाली रात? कह नहीं सकते। कौन देख रहा है उसकी ओर? कौन सोच रहा है उसकी? उसके जीवन से सदा-सदा के लिए कब खत्म होगी अमावस्या की काली रात?

मूर्खों के देश में धूर्तों का राज
बहुत युगों से धर्म तो बहुत हुआ। असंख्य मंदिर हैं। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का नाम, जाप और कीर्तन चल रहा है पर तब भी मनुष्य की यह दशा क्यों? लगभग पशु जैसी उसकी स्थिति है। सारे देश में छछूंदर कीर्तन हो रहा है। मूर्खों के देश में धूर्तों का राज है। इसका मतलब यही है कि धर्म का लोप हो गया है। चारों और प्रकाश की जगमगाहट है, बैंड बज रहे हैं, बम फूट रहे हैं, आकाश आतिशबाजी से चकाचौंध है, भाषण हो रहे हैं, योजनाएं बन रही हैं। और इधर धर्महीन मनुष्य के जिम्मे सिर्फ दो कर्म रह गए हैं- आहार (यदि जुटे), निद्रा (यदि आए)।